उत्तराखंड

भगवान शिव का अतिप्रिय होता है श्रावण मास

न्यूज डेस्क : भारतीय पंचांग के अनुसार वर्ष का पांचवा महीना श्रावण, सावन मास में वर्षा की झड़ी लगी होने के कारण वर्षा ऋतु का महीना या पावस ऋतु भी कहा जाता है। श्रावण का महीना ईस्वी कलेंडर के जुलाई और अगस्त माह में पड़ता है। पौराणिक मान्यतानुसार भारतीय पर्व त्योहारों और व्रतों के मध्य जिस प्रकार मकर संक्रांति और महाशिवरात्रि का त्यौहार सर्वश्रेष्ठ माने जाते है उसी प्रकार व्रतों में एकादशी का व्रत और श्रावण मास के व्रत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

श्रावण मास में उपाकर्म व्रत का महत्व अत्यधिक है। इसे श्रावणी भी कहते हैं।संध्योपासन, व्रत, तीर्थ, उत्सव, सेवा, दान, यज्ञ, संस्कार – हिन्दुओं के आठ प्रमुख कर्तव्य में माने गए हैं । श्रावण मास में व्रत रखना सबसे श्रेष्ठ और पाप नाशक और मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है । पूरे श्रावण माह में निराहारी अथवा फलाहारी रहकर शास्त्र अनुसार व्रतों का पालन करना चाहिए। मन की अनियंत्रण से और व्यर्थ की व्रतों से दूर रहना चाहिए।

भारतीय संस्कृति में व्रत ही तप है। यही उपवास है। व्रत दो प्रकार के हैं। इन व्रतों को कैसे और कब किया जाए, इसका अलग नियम है। नियम से हटकर जो मनमाने व्रत या उपवास करते हैं उनका कोई धार्मिक महत्व नहीं। व्रत से जीवन में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं रहता। व्रत से ही मोक्ष प्राप्त किया जाता है। श्रावण माह को व्रत के लिए बहुत ही फलदायी माना गया है।
श्रावण के महीने में हरियाली तीज, रक्षाबन्धन, नागपंचमी, कामिदा एकादशी, पुत्रदा एकादशी आदि त्यौहार प्रमुख रूप से मनाये जाते हैं। श्रावण पूर्णिमा को उत्तर भारत में रक्षाबन्धन और गुजरात में पवित्रोपना, दक्षिण भारत में नारियली पूर्णिमा और अवनी अवित्तम, मध्य भारत में कजरी पूनम के रूप में मनाया जाता है। सावन के महीने में होने वाली सबसे अधिक बारिश शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करने वाली मानी जाती है।
भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्रमा और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक शुकून मिलता है।

इस लिए शिव का सावन से बहुत ही गहरा लगाव है। सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन की एकाग्रता एक अहम कड़ी है, जिसके बिना परम तत्व की प्राप्ति असंभव है। साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है।
उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता। लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबा और धैर्य का सफर तय करना होता है। इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है। भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रावण महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें श्रावण महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।
अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के श्रावण महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया। कहा जाता है कि इसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया। एक अन्य कथा के अनुसार मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे।

शिव को सावन का महीना प्रिय होने का अन्य पौराणिक कारण यह भी है कि भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत आर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की। लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम नीलकंठ महादेव पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया।

इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोले बाबा को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। शिवपुराण में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है। पौराणिक मान्यतानुसार सावन महीने में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं।
इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे चौमासा भी कहा जाता है। तत्पश्चात् सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।
त्योहारों की विविधता ही भारत की विशिष्टता की पहचान है। श्रावण यानी सावन माह में भगवान शिव की अराधना का विशेष महत्त्व है। इस माह में पड़ने वाले सोमवार सावन के सोमवार कहे जाते हैं, जिनमें स्त्रियाँ और विशेषतौर से कुंवारी युवतियाँ भगवान शिव के निमित्त व्रत रखती हैं।

सावन के महीने में सोमवार महत्वपूर्ण होता है। इसीलिए श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव के व्रत किए जाने की परम्परा है । श्रद्धालु पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव जी के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। सोमवार का अंक 2 होता है, जो चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करता है।
चन्द्रमा मन का संकेतक है और वह भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान है। चंद्रमा मनसो जात: अर्थात चंद्रमा मन का स्वामी है और उसके नियंत्रण और नियमण में उसका अहम योगदान है। यानी भगवान शंकर मस्तक पर चंद्रमा को नियंत्रित कर उक्त साधक या भक्त के मन को एकाग्रचित कर उसे अविद्या रूपी माया के मोहपाश से मुक्त कर देते हैं। भगवान शंकर की कृपा से भक्त त्रिगुणातीत भाव को प्राप्त करता है और यही उसके जन्म-मरण से मुक्ति का मुख्य आधार सिद्ध होता है।

सावन मास में भगवान शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों संग करनी चाहिए। इस माह में भगवान शिव के रुद्राभिषेक का विशेष महत्त्व मन गया है। इसलिए इस मास में प्रत्येक दिन रुद्राभिषेक करने का प्रचलन है, जबकि अन्य महीनों में शिववास का मुहूर्त देख रुद्राभिषेक किया जाता है।
भगवान शिव के रुद्राभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी, गंगाजल और गन्ने के रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, शमीपत्र, कुशा और दूब आदि से शिवजी को अर्पित कर प्रसन्न करते हैं। अंत में भांग, धतूरा और श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रूप में चढा़या जाता है। शिवलिंग पर बेलपत्र और शमीपत्र चढा़ने का विधान का वर्णन पुराणों में करते हुए कहा गया है कि बेलपत्र भोलेनाथ को प्रसन्न करने के शिवलिंग पर चढा़या जाता है।
पुराणों के अनुसार अकवन अर्थात आक का एक फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सोने के दान के बराबर फल मिलता है। हज़ार आक के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों को चढ़ाने की अपेक्षा एक बिल्व पत्र से दान का पुण्य मिल जाता है। हज़ार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी होते हैं।
हज़ार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हज़ार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हज़ार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हज़ार शमी के पत्तों के बराकर एक नीलकमल, हज़ार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हज़ार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।
भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सरल तरीका उन्हें बेलपत्र अर्पित करने के पीछे भी एक पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार, भील नाम का एक डाकू अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटता था। एक बार सावन माह में यह डाकू राहगीरों को लूटने के उद्देश्य से जंगल में गया और एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गया। एक दिन-रात पूरा बीत जाने पर भी उसे कोई शिकार नहीं मिला।
जिस पेड़ पर वह डाकू छिपा था, वह बेल का पेड़ था। रात-दिन पूरा बीतने पर वह परेशान होकर बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा। उसी पेड़ के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था। अनजाने में डाकू द्वारा फेंके गये बिल्वपत्र शिवलिंग पर ही गिर रहे थे। लगातार बेल के पत्ते शिवलिंग पर गिरने से भगवान शिव प्रसन्न हुए और अचानक डाकू के सामने प्रकट हो गए और डाकू को वरदान माँगने को कहा।
डाकू को मुंहमांगा वरदान मिला और शिवभक्त हो गया। उस दिन से बिल्व-पत्र का महत्ता और बढ़ गई। श्रावण मास के शिव के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। यह व्रत भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाते हैं। व्रत में भगवान एक समय ही भोजन करते हुए भगवान शिव और माता पार्वती का ध्यान कर शिव पंचाक्षर मन्त्र का जप करते हुए पूजन करना चाहिए।

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